कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

11 June 2018

निरीह कलमें

निरीह कलमें
✒️
कुर्सी के सामने दो कलमें खड़ी थीं,
सिर झुकाए... आँखों में पानी भरे,
दीनता मंडित चेहरे...
जन्मों से, अघी हों जैसे।
पर, ऐसा कैसे हो सकता है...?
कलमें?...
हाँ कलमें...,
कलमें तो समाज को रास्ता दिखाती हैं।
सुकोमल, नवीन भावों का संचार करती हैं।
फिर...?
कुछ असमंजस में था मैं...
एक सवाल किया कुर्सी से, “आख़िर कसूर क्या है?”
...फिर क्या?
अब दो की जगह तीन कलमें खड़ी थीं।
पछतावा कदापि न था, कि प्रश्न क्यों किया?
मगर, घिन आ रही थी उस प्रणाली से...,
जो कुर्सी को सर्वसम्पन्न बनाता है, और कलम को निरीह...।
...“निश्छल”

10 comments:

  1. जी भाई साहब,
    बहुत ही उम्दा शब्द चित्र है, इस रचना में भी हर बार की तरह। पूरी व्यवस्था की तस्वीर इन चंद शब्दों में समाई है। मेरी कलम में उन्हीं में शामिल हो गयी है। समाजसेवा के लिये अब कहां चलती है पत्रकार की भी कलम,हर संस्थान का स्पष्ट निर्देश है व्यवसायी बनों और विज्ञापन कैसे मिले, इसके लिये चलाओ कलम।

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    1. जी आदरणीय, सत्य कहा आपने। बल्कि मैं तो इसे 'कलम का व्यवसाय' कहूँगा। जैसे हम दुकान पर गए, दो रूपये की कलम खरीदी, दुकानदार को दो रूपये दिये और घर आ गए। स्पष्टतः, हमने कलम की सही कीमत लगाई।
      .
      काश़, हमें बचपन के वो दिन याद आते, जब हम खड़े होना/चलना सीख रहे थे। एक-डेढ़ साल की उम्र में कितनी बार गिरे मगर हार नहीं मानी। अब, दशकों का सफ़र तय करने के बाद, कभी समाज से, कभी सिस्टम से तो कभी अपने आपसे हार जाते हैं। आज के युग हमें अपनी कलम को सशक्त करने और स्याही को 'परमानेंट मार्कर' की तरह अमिट करने की जरुरत है😁।
      .
      क्षमा कीजिएगा, आपके कथन के प्रसंग में कुछ कहा हूँ। आपकी अमूल्य टिप्पणी के लिए करबद्ध नमन🙏🙏🙏

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  2. वाह लाजवाब, एक तंज एक प्रश्न।

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    1. सादर आभार मैम, स्नेहाशीष प्रार्थी🙏🙏🙏

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  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 13 जून 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. जी जरूर, सादर धन्यवाद मैम...🙏🙏🙏

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  4. क्या बात भाई अमित जी ....गहरे उतर गये कलम की नोक से चुभ से गये ...बेहतरीन समर्थ लेखन दुत्कारता हुआ ....बेहतरीन

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  5. वाह ! प्रिय अमित बहुत ही सटीक तंज !!!! सचमुच कुर्सी के सामने कलम कितना पीछे रह गयी है!!!!! विद्वान कुर्सीधारी लोगों के आगे वाक् पंगु बन रह गये है | कलम का मानवी रूप बहुत मार्मिक है | सस्नेह --

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