हम जियेंगे बेसहारे
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स्नात नैनों को, दुसह स्मृति में झुकाकर, दीन जैसे
सांध्य-ऊषा में फिरेंगे, रेणु बन सर के किनारे।
अब गगन से रक्त बरसे, या कि गिर जाए गगन ही
प्रेयसी, दुःस्वप्न की पीड़ा कहो कैसे बिसारें?
काल-व्यापी ईश मेरे, ओ भुवन के एक स्वामी
इष्ट मेरे, हे प्रणेता, आपको यह मन पुकारे।
दैव, मेरी एक इच्छा, हो निरत मुझमें प्रियंकर
डाल दो आशीष मेरे शीश पर जैसे सितारे।।
हाँ, यही संकल्प लेकर देवगृह में तुम गई थीं
और देवों से निवेदन भी किया कारण हमारे।
श्रेय जाता है हमारे उम्र के इन तंतुओं का
उर्वशी मेरी, छिटककर अंश में प्रतिपल तिहारे।।
स्वप्न में ही, हाँ सही, आना मगर हिय में मचलकर
दृग सलाख़ों में रखेंगे मिन्नतों की चुन दिवारें।
लालची, हैं चक्षु की हृत कामना के मूल निंदित
अन्यथा, आभास मत करना कमी को तुम हमारे।।
हम निहारेंगे प्रफुल्लित, पुष्प सज्जित घाटियों को
इस समंदर से हृदय में आस के इक फूल धारे।
आचमन कर, अश्रु धारा में, शयन कर योगियों सा
अर्धनिद्रा में तड़पकर पग पखारेंगे तिहारे।।
ओ विकट संवेदनाओं व्यक्त कर दो तुम ज़रा सा
एक जीवन में भला अब और कितने व्रण निवारें?
हर सुबह वंदन करेंगे, और अभिनंदन करेंगे
जाप करके साधकों सा, हम जियेंगे बेसहारे।।
...“निश्छल”
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 29 मार्च 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-3-22) को "क्या मिला परदेस जाके ?"' (चर्चा अंक 4384)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
सुंदर सृजन
ReplyDeleteसुंदर रचना।
ReplyDeleteसुंदर सृजन
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