कथन

श्रुतियों के अभिव्यंजन की अब, प्रथा नहीं है ऐ हमदम...।
...“निश्छल”

04 May 2022

मैं, अगर मिल भी गया किंवदंतियों में

 मैं, अगर मिल भी गया किंवदंतियों में



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क्या कहें सामर्थ्य कितनी है हमारी?

प्रश्न, इक अहम्मन्य कोई पूछता है...


नींव अंतस की धसक कर टूट जाती।

सोचता, अनुशंसितों की पंक्तियों में,

एक संज्ञा और, क्या जुड़कर रहेगी?

या कि, रण मैं जीत लूँगा

लोभ की अलकापुरी में द्वंद्व से निज?


मैं, बिखरकर नित स्वयं को कोसता हूँ।

पक्षपाती एक सरिता,

द्विगुणित होकर ढुलकती

अंतःकरण के काननों से;

जलमग्न हो कर

तृप्त होते अक्षि के त्रिकोण,

जिनमें अश्रु के गोले

खुले सैलाब का आह्वान करते

सिंधु के हर मानकों को तोड़कर।


धुन रहा हूँ शीश अपनेआप ही,

क्या लालसा मेरी

मुझे इस हाल में ही छोड़ देगी?

ताकि,

मैं पुनः निर्मल मनन कर, नित नये उत्थान करता

संवेदना के सेतु रच, अभिव्यंजना की राह चलता

बन सकूँगा एक राही;

जग जिसे उत्तीर्ण कर देगा

सिद्धि की आलोचना में?


या कि कह दूँ, बाहुबल से नाप अपनी,

या ज्ञान की निज दक्षता से जाँच अपनी?

मैं, अगर मिल भी गया किंवदंतियों में

पूछ लेना फुसफुसाकर नाम मेरा;

किस गली रहता, बसा हूँ कौन से घर

जान लेना, और है क्या काम मेरा?

...“निश्छल”

02 April 2022

संपूर्ण समर्पित कर के

 संपूर्ण समर्पित कर के



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इति वदति प्रात, संध्या, निशि

उदकं उच्छृंखल लहरें,

ज्ञातव्य रूप तव प्रेयसि

लोचन पर डाले पहरें।।


छवि की जीवंत निरूपण

अनुकृति शोधित रत्नों की,

आभा, शुचि-चंदन जैसी

कामिनी गूढ़ यत्नों की।

कंचन सी निखरी उपमा

हृत कर के राकापति को,

पल्लवित पुष्प सी सुषमा

दीपित करती संप्रति को।

खग करते नित कलरव कर

अभिजात रूप के वर्णन,

विधि ने ढाली यह प्रतिमा

निज कर से कर उत्कीर्णन।

लावण्य रूप प्रतिबिंबित

ऊषा-द्युति के कानन में,

द्योतित नीलाभ समंदर

रोपित सुंदर आनन में।

आरूढ़ जलज-पल्लव पर

ओ शशिवदने, मधुबाले,

घनश्याम लटों में छिपते

खंजन-नयना ये काले।


विश्रांति निवारण को दृग

अलकों के अर्चन करते,

दग्ध श्वास के तर्पण को

नीरव अभ्यर्थन करते।

मकरंद-कुसुम की प्याली

हठ करके छलकाने को,

स्वर्ण मेखला कटि की

उत्कंठित, झलकाने को।

दिशि में गूँजें लहरें ज्यों

रत्नाकर की इठलाती,

विचरण करतीं तुम निशि में

बेला जैसे मदमाती।

व्रत धारण करके बैठा

पाने को वैभव तप का,

प्रमुदित हो जाता, जब-जब

अनुबोधन होता पथ का।

ओ अगम स्नेह की सरिता

गर्हित वय की मधुशाला,

कंदर्प वलय प्रतिबोधित

मन्मथ संस्तुति की माला।


झुरमुट की नरकट सा मैं

मर्कट, गाछों पर बसता,

तुम पुहुप, देव-उपवन की

यादें अंकों में कसता।

इक इच्छा पाले ऐसी

संयम से मन को बाँधे,

मानस में धारण करता

कोमल अभिलाषा साधे।

मैं, क्षिति पर नहीं, गगन में

तिरते ख़्वाबों को देखा,

परिचपल, चुरायें चित को

भौंहों की तिर्यक रेखा।

प्रज्ञप्ति प्रलय का देती

श्वासों की धूसर भाथी,

ओ! कर्पूरी वातायन

सुरसरि तरंग सी साथी।

हिय के प्रख्यात प्रबोधन

अंतर्मन में दफ़नाता,

संपूर्ण समर्पित कर के

इस मृदुता को अपनाता।।

...“निश्छल”